Religious Revolution in the world

विश्व में अध्यात्मिक क्रांति

विकासवाद एवं वैज्ञानिक प्रगति

विकासवाद के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी पर मानव का जन्म और विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए उसके जीवन के विकास चक्र को पूर्ण होने में लाखों वर्ष लगे हैं। पृथ्वी पर लाखों तरह के जीवधारियों में एकमात्र मनुष्य ही वह प्राणी है जो बुद्धिमत्तापूर्वक सोच सकता है तथा विचारों को क्रियात्मक रूप दे सकता है। मनुष्य की इसी बुद्धिमत्ता की शक्ति की वजह से वैज्ञानिकों ने मनुष्य को विकासवाद की सीढी के उच्चतम सोपान पर रखा है।

गत एक शताब्दी में मनुष्य ने विज्ञान तथा टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में लम्बी छलांग लगाई है अर्थात बडी प्रगति की है। यह मनुष्य के भव्य विकास के शिखर पर पहुँचने का अक्सर भ्रम पैदा करती है। ध्यानपूर्वक देखें तो इस परिस्थिति से ज्ञात होता है कि मनुष्य के मस्तिष्क का विकास, पदार्थ की सम्भाव्य खोज तक ही सीमित रहा है। यह भौतिक विज्ञान के चमत्कारी विकास के रूप में प्रदर्शित हुआ है जिसने मनुष्य को अन्तरिक्ष में पहुँचाया है तथा विभिन्न खोजों द्वारा मानव शरीर के रहस्यों को उजागर किया है जैसे जीनोम निर्धारण, कोशिकीय जन्तु विज्ञान तथा स्टैम सेल्स (मातृ कोशिकाऐं) आदि।

फिर भी आत्मा की सम्भाव्यताओं के बारे में मानव के कदम मनोभौतिक खोज के क्षेत्र से आगे नहीं बढे हैं। वास्तव में मानव मस्तिष्क की परतों की गहराई से जाँच हमेशा वैज्ञानिकों द्वारा मस्तिष्क की बारीकी से जाँच पर जाकर समाप्त हो जाती है । ऐसा इस कारण है कि आधुनिक विज्ञान न तो यह विश्वास कर सकती है और न यह ग्रहण कर सकती है कि मानव शरीर तथा मस्तिष्क, चेतना के भिन्न आयाम से, जो हमारी भौतिक दुनियाँ की सीमाओं से परे हैं, जुड सकता है। इसी का परिणाम है कि एक ओर आत्मा तथा दूसरी ओर पदार्थ की सम्भाव्य सम्भावनाओं को धार्मिक आध्यात्मिकता के व्याख्याकारों के लिये छोड दिया गया है। इसने वैज्ञानिकों तथा धर्म गुरूओं को स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया है जिसके कारण दोनों एक दूसरे की ओर शत्रुता की सीमा तक शक की निगाह से देखने लगे हैं।

विकसित पश्चिम का, लाभ के लिये भौतिक जगत के उपयोग पर अध्यधिक जोर रहा है जिसके कारण आध्यात्मिक जगत की सम्भाव्यता जो मानव शरीर तथा मस्तिष्क से गहराई के साथ जुडी है, प्रभावित हुई है, और लगभग पूरी तरह से उपेक्षित रही है। यही कारण है कि विज्ञान तथा टैक्नोलॉजी से भौतिक सुख सुविधाओं में अत्यधिक प्रगति हुई है लेकिन मानसिक शान्ति नहीं मिल सकी है। नई वैज्ञानिक खोजों से अगर कोई ठोस भौतिक प्रगति हुई है तो उसने मानव समाज के बीच स्पर्धा, विवाद, फूट व परस्पर विनाशकारी झगडे आदि भी पैदा किये हैं।

भौतिक विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य ने प्रथम चार कोषों को चेतन करने में सफलता पा ली है, अन्तिम तीन कोषों को वह किस प्रकार चेतन करेगा? श्री अरविन्द ने अपनी फ्रैन्च सहयोगी शिष्या के साथ, जो माँ के नाम से जानी जाती थीं, अपनी ध्यान की अवस्थाओं के दौरान यह महसूस किया कि अन्तिम विकास केवल तभी हो सकता है जब लौकिक चेतना (जिसे उन्होंने कृष्ण की अधिमानसिक शक्ति कहा है) पृथ्वी पर अवतरित हो।

प्रथम चार कोष जो मानवता में चेतन हो चुके हैं वहाँ विद्या पर अविद्या का अधिपत्य है। शेष तीन आध्यात्मिक कोश जो मानवता में चेतन होना बाकी हैं यहाँ अविद्या पर विद्या का प्रभुत्व है। उपरोक्त सातों काषों के पूर्ण विकास को ही ध्यान में रखकर महर्षि श्री अरविन्द ने भविष्यवाणी की है कि “आगामी मानव जाति दिव्य शरीर (देह) धारण करेगी”। हमारे ऋषियों ने मनुष्य शरीर को विराट स्वरूप प्रमाणित करके उसके अन्दर सम्पूर्ण सृष्टि को देखा, इसके जन्मदाता परमेश्वर का स्थान सहस्त्रार में और उसकी पराशक्ति (कुण्डलिनी) का स्थान मूलाधार के पास है। साधक की कुण्डलिनी चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, इसी को मोक्ष कहा गया है।

मनुष्य संक्रमणकालीन जीव है

मनुष्य की भौतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति के असंतुलन के फलस्वरूप मानव समाज में जो वर्तमान संकट पैदा हुआ है उसका बीसवीं शताब्दी के एक बहुत बडे आध्यात्मिक संत एवं भविष्यदृष्टा श्री अरविन्द ने सही निदान कर दिया था। उन्होंने अपने मर्मस्पर्शी लेखों, भाषणों द्वारा यह तर्क दिये थे कि भौतिक तथा आध्यात्मिक सम्भाव्यताओं की खोजों के बीच जब तक सही संतुलन नहीं होगा और उन्हें आपस में जोडा नहीं जायेगा तब तक मानव समाज में शान्ति नहीं आ सकेगी। अन्य बहुत से दार्शनिकों एवं आध्यात्मिक प्रगति के सिद्धान्त प्रतिपादित करने वालों की तरह, श्री अरविन्द के इस विषय पर विचार कोरे सैद्धान्तिक व बौद्धिक अभ्यास मात्र नहीं थे, वैदिक विद्यार्थियों की पाठ्य पुस्तकों में दिये गये अधिकांश अनुसंधान के निष्कर्षों को, ज्यों का त्यों स्वीकारने के बजाय श्री अरविन्द ने लौकिक चेतना और उसके भौतिक जगत पर पडने वाले प्रभाव को अनुभव करने व समझने के लिये वैदिक धर्मग्रन्थों पर स्वतंत्र रूप से स्वयं के अनुसंधान किये। अपने प्रायोगिक अनुसंधान के एक भाग के रूप में आन्तरिक योग पर लगभग ४० वर्ष तक अभ्यास करने के पश्चात् उन्होंने एक विस्मयकारी खोज की- मनुष्य, पृथ्वी पर जीवन के, विकास चक्र के शिखर पर नहीं है, वह केवल एक संक्रमणकालीन जीव है। उन्होंने पाया कि होमोसेपियन्स (मानव वर्ग) को आत्मा के क्षेत्र में अभी आगे और विकसित होना है। जब मनुष्य चेतना की शेष बची अवस्थाओं में और ऊपर विकास करता है केवल तभी वह हमारे ग्रह पर जीवन के उच्चतम विकास पर पहुँच सकेगा।