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“मैं वैदिक सिद्धान्त “वसुदैव कुटुम्बकम” में विश्वास करता हूँ, इसलिये मैं विदेशों के लाखों लोगों, खासतौर से पश्चिम के लोगों तक पहुँचकर उन्हें यह अद्वितीय आध्यात्मिक मदद देने के लिये उत्सुक हूँ। जैसा स्वामी विवेकानन्द ने कहा था पश्चिम के लोग विज्ञान तथा तकनीकी ज्ञान की प्रगति के कारण भौतिक तरक्की कर चुके हैं परन्तु अध्यात्मिक प्रगति के अभाव में अत्यधिक मानसिक वेदना एवं तनाव से घिरे हैं।संयुक्त राज्य अमेरिका जो न सिर्फ पश्चिम का बल्कि समस्त विश्व का अगुआ है उस तक अपना मिशन ले जाकर मैं यह कार्य करना चाहता हूँ। अगर विश्व में कोई इस दिव्य मिशन का प्रचार प्रसार करना चाहता है तो वह आगे बढकर ऐसा कर सकता है।” -समर्थ सदगुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग
परमपिता का अर्द्धनारीश्वर भाग शक्ति कहलाता है यह ईश्वर की पराशक्ति है (प्रबल लौकिक ऊर्जा शक्ति)। जिसे हम राधा, सीता, दुर्गा या काली आदि के नाम से पूजते हैं। इसे ही भारतीय योगदर्शन में कुण्डलिनी कहा गया है। यह दिव्य शक्ति मानव शरीर में मूलाधार में (रीढ की हड्डी का निचला हिस्सा) सुषुप्तावस्था में रहती है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। इसीलिए यह कुण्डलिनी कहलाती है।
जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है तो यह सहस्त्रार में स्थित अपने स्वामी से मिलने के लिये ऊपर की ओर उठती है। जागृत कुण्डलिनी पर समर्थ सद्गुरू का पूर्ण नियंत्रण होता है, वे ही उसके वेग को अनुशासित एवं नियंत्रित करते हैं। गुरुकृपा रूपी शक्तिपात दीक्षा से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ६ चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार तक पहुँचती है। कुण्डलिनी द्वारा जो योग करवाया जाता है उससे मनुष्य के सभी अंग पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं।
साधक का जो अंग बीमार या कमजोर होता है मात्र उसी की यौगिक क्रियायें ध्यानावस्था में होती हैं एवं कुण्डलिनी शक्ति उसी बीमार अंग का योग करवाकर उसे पूर्ण स्वस्थ कर देती है।
इससे मानव शरीर पूर्णतः रोगमुक्त हो जाता है तथा साधक ऊर्जा युक्त होकर आगे की आध्यात्मिक यात्रा हेतु तैयार हो जाता है। शरीर के रोग मुक्त होने के सिद्धयोग ध्यान के दौरान जो बाह्य लक्षण हैं उनमें यौगिक क्रियाऐं जैसे दायं-बायें हिलना, कम्पन, झुकना, लेटना, रोना, हंसना, सिर का तेजी से धूमना, ताली बजाना, हाथों एवं शरीर की अनियंत्रित गतियाँ, तेज रोशनी या रंग दिखाई देना या अन्य कोई आसन, बंध, मुद्रा या प्राणायाम की स्थिति आदि मुख्यतः होती हैं ।
हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार मूलाधार चक्र से आज्ञा चक्र तक का जगत माया का और आज्ञा चक्र से लेकर सहस्त्रार तक का जगत परब्रह्म का है।
वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), २- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति), ३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), ४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), ५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), ६- चित्मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)।
मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है।
प्रथम चार कोष जो मानवता में चेतन हो चुके हैं शेष तीन आध्यात्मिक कोश जो मानवता में चेतन होना बाकी हैं उपरोक्त सातों काषों के पूर्ण विकास को ही ध्यान में रखकर महर्षि श्री अरविन्द ने भविष्यवाणी की है कि “आगामी मानव जाति दिव्य शरीर (देह) धारण करेगी”।
श्री अरविन्द ने अपनी फ्रैन्च सहयोगी शिष्या के साथ, जो माँ के नाम से जानी जाती थीं, अपनी ध्यान की अवस्थाओं के दौरान यह महसूस किया कि अन्तिम विकास केवल तभी हो सकता है जब लौकिक चेतना (जिसे उन्होंने कृष्ण की अधिमानसिक शक्ति कहा है) पृथ्वी पर अवतरित हो।
साधक की कुण्डलिनी चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, इसी को मोक्ष कहा गया है।
आरम्भ करने वाला कभी-कभी स्वैच्छिक होने वाली योगिक क्रियाओं से यह सोचकर भयभीत हो जाता है कि या तो कुछ गलत हो गया है या फिर किसी अदृश्य शक्ति की पकड में आ गया है लेकिन यह भय निराधार है। वास्तव में यह यौगिक क्रियायें या शारीरिक हलचलें दिव्य शक्ति द्वारा निर्दिष्ट हैं और प्रत्येक साधक के लिये भिन्न-भिन्न होती हं। ऐसा इस कारण होता है कि इस समय दिव्य शक्ति जो गुरू सियाग की आध्यात्मिक शक्तियों के माध्यम से कार्य कर रही होती है वह यह भली भाँति जानती है कि साधक को शारीरिक एवं मानसिक रोगों से मुक्त करने के लिये क्या विशेष मुद्रायें आवश्यक हैं।
यह क्रियायें कोई भी हानि नहीं पहुँचाती शरीर-शोधन के दौरान असाध्य रोगों सहित सभी तरह के शारीरिक एवं मानसिक रोगों से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है यहां तक कि वंशानुगत रोग जैसे हीमोफिलिया से भी छुटकारा मिल जाता है।
सभी तरह के नशे छूट जाते हैं। साधक बढा हुआ अन्तर्ज्ञान, भौतिक जगत के बाहर अस्तित्व के विभिन्न स्तरों को अनुभव करना, अनिश्चित काल तक का भूत व भविष्य देख सकने की क्षमता आदि प्राप्त कर सकता है। आत्मसाक्षात्कार होने के पश्चात आगे चल कर साधक को सत्यता का भान हो जाता है जो उसे कर्मबन्धनों से मुक्त करता है और इस प्रकार कर्मबन्धनों के कट जाने से दुःखों का ही अन्त हो जाता है। कुण्डलिनी के सहस्त्रार में पहुँचने पर साधक की आध्यात्मिक यात्रा पूर्ण हो जाती है। इस अवस्था पर पहुँचने पर साधक को स्वयं के ब्रह्म होने का पूर्ण एहसास हो जाता है इसे ही मोक्ष कहते हैं।
फिर भी यदि कोई साधक इन क्रियाओं से अत्यधिक भयभीत है तो वह इन्हें रोकने हेतु गुरू सियाग से प्रार्थना कर सकता है प्रार्थना करने पर क्रियायें तत्काल रुक जायेंगी।
इस युग का मानव भौतिक विज्ञान से शान्ति चाहता है परन्तु विज्ञान ज्यों-ज्यों विकसित होता जा रहा है, वैसे-वैसे शान्ति दूर भाग रही है और अशान्ति तेज गति से बढती जा रही है। क्योंकि शान्ति का सम्बन्ध अन्तरात्मा से है, अतः विश्व में पूर्ण शान्ति मात्र वैदिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर ही स्थापित हो सकती है। अन्य कोई पथ है ही नहीं। भारतीय योग दर्शन में वर्णित “सिद्धयोग” से विश्व शान्ति के रास्ते की सभी रुकावटों का समाधान सम्भव है।
सिद्धयोग, योग के दर्शन पर आधारित है जो कई हजार वर्ष पूर्व प्राचीन ऋषि मत्स्येन्द्रनाथ जी ने प्रतिपादित किया तथा एक अन्य ऋषि पातंजलि ने इसे लिपिबद्ध कर नियम बनाये जो ‘योगसूत्र‘ के नाम से जाने जाते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार मत्स्येन्द्रनाथ जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस योग को हिमालय में कैलाश पर्वत पर निवास करने वाले शास्वत सर्वोच्च चेतना के साकार रूप भगवान शिव से सीखा था। ऋषि को, इस ज्ञान को मानवता के मोक्ष हेतु प्रदान करने के लिये कहा गया था। ज्ञान तथा विद्वता से युक्त यह योग गुरू शिष्य परम्परा में समय-समय पर दिया जाता रहा है।
यह योग (सिद्धयोग) नाथमत के योगियों की देन है इसमें सभी प्रकार के योग जैसे भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, लययोग, भावयोग, हठयोग आदि सम्मिलित हैं, इसीलिए इसे पूर्ण योग या महायोग भी कहते हैं इससे साधक के त्रिविध ताप आदि दैहिक (फिजीकल) आदि भौतिक (मेन्टल) आदि दैविक (स्प्रीचुअल) नष्ट हो जाते हैं तथा साधक जीवनमुक्त हो जाता है। महर्षि अरविन्द ने इसे पार्थिव अमरत्व की संज्ञा दी है। पातंजलि योगदर्शन में साधनापाद के २१ वें श्लोक में योग के आठ अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का वर्णन है।
बौद्धिक प्रयास से इस युग में उनका पालन करना असम्भव है। परन्तु गुरू-शिष्य परम्परा में शक्तिपात-दीक्षा से कुण्डलिनी जागृत करने का सिद्धान्त है। सद्गुरुदेव साधक की शक्ति (कुण्डलिनी) को चेतन करते हैं। वह जागृत कुण्डलिनी साधक को उपर्युक्त अष्टांगयोग की सभी साधनाएं स्वयं अपने अधीन करवाती है। इस प्रकार जो योग होता है उसे सिद्धयोग कहते हैं। यह शक्तिपात केवल समर्थ सदगुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त होता है इसलिये इसे सिद्धयोग कहा जाता है जबकि अन्य सभी प्रकार के योग मानवीय प्रयास से होते हैं।
पातंजलि ऋषि ने अपनी पुस्तक योग सूत्र में बीमारियों का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया है १. शारीरिक (आदि दैहिक) २. मानसिक (आदि भौतिक) तथा ३. आध्यात्मिक (आदि दैविक)। मनुष्य की आध्यात्मिक बीमारियों के लिये आध्यात्मिक इलाज की आवश्यकता होती है। मनुष्य की आध्यात्मिक बीमारियों का आध्यात्मिक इलाज योग के नियमित अभ्यास द्वारा केवल आध्यात्मिक गुरू, जैसे गुरू सियाग की मदद द्वारा ही सम्भव हो सकता है। एक मात्र गुरू ही है जो शिष्य को उसके पूर्व जन्मों के कर्म बन्धनों को काटकर उसे, जीवन के सही उद्देश्य, आत्मसाक्षात्कार द्वारा बीमारियों तथा दुःखों से छुटकारा दिलाने में उसकी सहायता कर सकता है।
दूसरे शब्दों में कर्म का आध्यात्मिक नियम, पूर्व जन्म के कर्म इस जन्म की बीमारियों तथा दुःखों के कारण हैं जो मनुष्य को जन्म जन्मान्तर तक कभी समाप्त न होने वाले चक्र में बांधे रखते हैं, सिर्फ रोगों को दूर करने के उद्देश्य से इसे काम लेना इसके मुख्य उद्देश्य को ही छोड देना है क्योंकि यह तो साधक को उसके कर्मों के उन बन्धनों से मुक्त करता है जो निरन्तर चलने वाले जन्म-मृत्यु के चक्र में उसे बाँधकर रखते हैं।
प्राचीन भारतीय ऋषियों ने ध्यान के द्वारा जीवन के रहस्यों की गहराई तक छानबीन की और यह पाया कि बीमारियों का कारण केवल कीटाणुओं अथवा विषाणुओं के सम्फ में आना ही नहीं है बल्कि अधिकांश मनुष्यों में पीडा व सन्ताप का कारण पूर्व जन्म में उनके द्वारा किये गये कर्मों का फल भी है। प्रत्येक कर्म चाहे वह अच्छा हो या बुरा, उसका परिणाम भोगना पडता है, चाहे वह इसी जन्म में मिले या फिर आगामी जन्म में। चूँकि प्रत्येक मनुष्य, जीवन तथा मृत्यु के कभी समाप्त न होने वाले चक्र में फँसा हुआ है, मनुष्य की बीमारियाँ व भोग तथा जीवन का उत्थान-पतन अनवरत रूप से चलता रहता है।
आधुनिक विज्ञान मृत्यु के बाद जीवन की निरन्तरता को स्वीकार नहीं करता। इसी कारण वह बीमारियों के भौतिक हल ढूँढता है और अन्ततः स्थायी चिकित्सा में असमर्थ रहता है। अगर विज्ञान एक बीमारी का हल खोजता है तो दूसरी अधिक जटिल बीमारियाँ मनुष्यों में कभी-कभी उत्पन्न हो जाती हैं। इसका कारण है, इस विश्वास से इनकार करना कि इस समस्या की जड मनुष्य के भौतिक जीवन से बहुत दूर की बात है।
निरन्तर जाप एवं ध्यान के दौरान लगने वाली खेचरी मुद्रा में साधक की जीभ स्वतः उलटकर तालू से चिपक जाती है, जिसके कारण सहस्त्रार से निरन्तर टपकने वाला दिव्य रस (अमृत) साधक के शरीर में पहुचकर साधक की रोग प्रतिरोधक शक्ति को अद्भुत रूप से बढा देता है, जिससे साधक को असाध्य रोगों जैसे एड्स, कैन्सर, गठिया एवं अन्य प्राणघातक रोगों से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है। महायोगी गोरखनाथ जी ने कहा है कि –
गगन मण्डल में ऊँधा-कुंआ, तहाँ अमृत का वासा।
सगुरा होइ सो भरि भरि पीव, निगुरा जाइ प्यासा।।
नाम खुमारी अथवा दिव्य आनन्द
आज सम्पूर्ण विश्व में भयंकर तनाव व्याप्त है। अतः आज विश्व में मनोरोगियों की संख्या सर्वाधिक है, खासतौर से पश्चिमी जगत में। भौतिक विज्ञान के पास मानसिक तनाव शान्त करने की कोई कारगर विधि नहीं है। भैतिक विज्ञानी मात्र नशे के सहारे, मानव के दिमाग को शान्त करने का असफल प्रयास कर रहे हैं। दवाई का नशा उतरते ही तनाव पहले जैसा ही रहता है, तथा उससे सम्बन्धित रोग यथावत रहते हैं।
वैदिक मनोविज्ञान अर्थात अध्यात्म विज्ञान, मानसिक तनाव को शान्त करने की क्रियात्मक विधि बताता है। भौतिक विज्ञान की तरह भारतीय योगदर्शन भी “नशे” को पूर्ण उपचार मानता है, परन्तु वह “नशा” ईश्वर के नाम का होना चाहिये, किसी भौतिक पदार्थ का नहीं। हमारे सन्तों ने इसे हरि नाम की खुमारी कहा है। इस सम्बन्ध में संत सदगुरुदेव श्री नानक देव जी महाराज ने फरमाया हैः
भांग धतूरा नानका उतर जाय परभात।
“नाम-खुमारी” नानका चढी रहे दिन रात।।
यही बात संत कबीर दास जी ने कही हैः
“नाम-अमल” उतरै न भाई।
और अमल छिन-छिन चढ उतरें।
“नाम-अमल” दिन बढे सवायो।।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने “योगी” की स्थिति का वर्णन करते हुए, पांचवे अध्याय के २१ वें श्लोक में नाम खुमारी को “अक्षय-आनन्द” कहा है, तथा छठे अध्याय के १५,२१,२७ व २८वें श्लोक में इसे परमानन्द पराकाष्ठावाली शान्ति, इन्द्रीयातीत आनन्द, अति-उत्तम आनन्द तथा परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनन्द कहा है। इस युग का मानव भौतिक सुख को ही आनन्द मानता है, यह भारी भूल है।
वृत्तियाँ क्या हैं?
वैदिक धर्मशास्त्र ब्रह्म के द्वैतवाद को स्वीकार करते हैं जिसमें एक ओर वह आकार रहित, असीमित, शास्वत तथा अपरिवर्तनशील, अतिमानस चेतना है तो दूसरी ओर उसका चेतनायुक्त दृश्यमान तथा नित्य परिवर्तनशील भौतिक जगत है। यह चेतना भौतिक जगत के सभी सजीव तथा निर्जीव पदार्थों पर, जो तीन गुणों के मेल से बने हैं, अपना प्रभाव डालती है। सात्विक (प्रकाशित, पवित्र, बुद्धिमान व धनात्मक) रजस (आवेशयुक्त तथा ऊर्जावान) और तमस (ऋणात्मक, अंधकारमय, सुस्त तथा आलसी)।
सत्व संतुलन की शक्ति है। सत्व के गुण अच्छाई, अनुरूपता, प्रसन्नता तथा हल्कापन हैं।
राजस गति की शक्ति है। राजस के गुण संघर्ष तथा प्रयास, जोश या क्रोध की प्रबल भावना व कार्य हैं।
तमस निष्क्रियता तथा अविवेक की शक्ति है। तमस के गुण अस्पष्टता, अयोग्यता तथा आलस्य हैं।
मनुष्यों सहित सभी जीवधारियों में यह गुण पाये जाते हैं। फिर भी ऐसे विशेष स्वभाव का एक भी नहीं है जिसमें इन तीन लौकिक शक्तिओं में से मात्र एक ही हो। सब जगह सभी में यह तीनों ही गुण होते हैं लगातार तीनों ही गुण कम ज्यादा होते रहते हैं यह निरन्तर एक दूसरे पर प्रभावी होने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। यही वजह है कि कोई व्यक्ति सदैव अच्छा या बुरा, बुद्धिमान या मूर्ख, क्रियाशील या आलसी नहीं होता है।
जब किसी व्यक्ति में सतोगुणी वृत्ति प्रधान होती है तो अधिक चेतना की ओर उसे आगे बढाती है जिससे वह अतिमानसिक चेतना की ओर, जहाँ उसका उद्गम था, वापस लौट सके और अपने आपको कर्मबन्धनों से मुक्त कर सके। राजसिक या तामसिक वृत्ति प्रधान व्यक्ति सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु के समाप्त न होने वाले चक्र में फँसता है। सिद्धयोग की साधना, सात्विक गुणों का उत्थान करके अन्ततः मोक्ष तक पहुँचाती है जो अन्तिम रूप से आध्यात्मिक मुक्ति है।
इसी प्रकार निरन्तर नाम जप व ध्यान से वृत्ति परिवर्तन भी होता है। मनुष्य में मूलतः तीन वृत्तियाँ होती हैं। सतोगुणी, रजोगुणी एवं तमोगुणी। मनुष्य में जो वृत्ति प्रधान होती है उसी के अनुरूप उस का खानपान एवं व्यवहार होता है। निरन्तर नाम जप के कारण सबसे पहले तमोगुणी (तामसिक) वृत्तियाँ दबकर कमजोर पड जाती हैं बाकी दोनों वृत्तियाँ प्राकृतिक रूप से स्वतंत्र होने के कारण क्रमिक रूप से विकसित होती जाती हैं।
कुछ दिनों में प्रकृति उन्हें इतना शक्तिशाली बना देती है कि फिर से तमोगुणी वृत्तियाँ पुनः स्थापित नहीं हो पाती हैं। अन्ततः मनुष्य की सतोगुणी प्रधानवृत्ति हो जाती है। ज्यों-ज्यों मनुष्य की वृत्ति बदलती जाती है दबने वाली वृत्ति के सभी गुणधर्म स्वतः ही समाप्त होते जाते हैं। वृत्ति बदलने से उस वृत्ति के खानपान से मनुष्य को आन्तरिक घृणा हो जाती है। इसलिये बिना किसी कष्ट के सभी प्रकार की बुरी आदतें अपने आप छूट जाती हैं। इस संबंध में स्वामी विवेकानन्द जी ने अमेरिका में कहा था “कि मनुष्य उन वस्तुओं को नहीं छोडता वे वस्तुऐं उसे छोडकर चली जाती हैं।”
दुनिया के सभी धर्मों में कितनी भी विभिन्नताएं हों पर एक बात पर सभी एकमत हैं कि इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक दिव्य शब्द से हुई है। बाइबल भी कहती है कि- स्रष्टि के आरम्भ में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था, शब्द ईश्वर था. वह शब्द ईश्वर के साथ आरम्भ हुआ था, हर वस्तु ‘उसके’ द्वारा बनाई गई थी और ‘उसके’ बिना कुछ भी बनाना सम्भव नहीं था जो कुछ भी बनाया गया था. ‘उसमें’ ही जीवन था वह जीवन ही इंसान का प्रकाश था।
इस बारे में श्री अरविंद ने पुस्तक ‘चेतना कि अपूर्व यात्रा’ में लिखा है कि “भारत वर्ष में एक गुह्य विद्या विद्यमान है जिसका आधार है नाद तथा चेतना-स्तरों के अनुरूप स्पन्दन-विधि के भिन्न-भिन्न तरीके। उदाहरणतः यदि हम ‘ओम’ ध्वनि का उच्चारण करें तब हमें स्पष्ट अनुभव होता है कि वह मूर्धा के केन्द्रों को घेर लेती है। इसके विपरीत ‘रं’ ध्वनि नाभिकेंद्र को स्पर्श करती है। हमारी चेतना के प्रत्येक केंद्र का एक लोकविशेष के साथ सीधा संबंध होने के कारण, कुछ ध्वनियों का जप करके मनुष्य उनके समरूप चेतना-स्तरों के साथ सम्बंध स्थापित कर सकता है।
एक सम्पूर्ण अध्यात्मिक अनुशासन इसी तथ्य पर आश्रित है। वह ‘तांत्रिक’ कहलाता है क्यों कि तंत्र नामक शास्त्र से उसकी उत्पत्ति हुई है।
ये आधारभूत या मूल ध्वनियाँ, जिनमे संबंध स्थापित करने की शक्ति निहित रहती है, मंत्र कहलाती हैं। मात्र गुरु द्वारा ही शिष्य को उपदिष्ट ये मंत्र, सदा गोपनीय हैं। मंत्र बहुत तरह के होते हैं (चेतना के प्रत्येक स्तर की बहुत सी कोटियाँ हैं) और सर्वथा विपरीत लक्ष्यों के लिए इनका प्रयोग हो सकता है। कुछ विशिष्ट ध्वनियों के संमिश्रण द्वारा मनुष्य चेतना के निम्न स्तरों पर, बहुदा प्राण-स्तर पर, इनसे समरूप शक्तियों के साथ संपर्क जोड़कर, अनेक प्रकार की बड़ी ही विचित्र क्षमताएं प्राप्त कर सकता है –
ऐसे मंत्र हैं जो घातक सिद्ध होते हैं (पांच मिनट के अंदर भयंकर वमन होने लगता है), ठीक-ठीक निशाना बनाकर वे शरीर के किसी भी भाग पर, किसी अंगविशेष पर प्रहार करते हैं, फिर रोग का उपशम करने वाले, आग लगा देने वाले, रक्षा करने वाले, मोहिनीशक्ति डाल वश में करने वाले भी मंत्र होते हैं। इस तरह का जादू-टोना या यह स्पंद-रसायन एकमात्र निम्न-स्पन्दों के सचेतन प्रयोग का परिणाम होता है।
किन्तु एक उच्चतर जादू जो कि होता है स्पन्दों के ही व्यवहार द्वारा सिद्ध, किन्तु चेतना के ऊर्ध्व स्तरों पर – काव्य, संगीत, वेदों तथा उपनिषदों के आध्यात्मिक मंत्र अथवा वे सब मंत्र जिनका कोई गुरु अपने शिष्य को, चेतना के किसी विशेष स्तर के साथ, किसी विशेष शक्ति अथवा दिव्य सत्ता के साथ, सीधा सम्बंध स्थापित करने के लिए सहायता करने के उद्देश्य से, उपदेश करता है। अनुभूति और सिद्धि कि शक्ति स्वयं इस ध्वनि में ही विद्यमान रहती है – यह ऐसी ध्वनि होती है जो हमें अंतदृष्टि प्रदान करती है।”
ठीक होने के पश्चात्, यदि साधक ध्यान व मंत्र जाप बन्द कर देता है तो उसकी बीमारी पुनः प्रकट हो सकती है। भारतीय योग दर्शन कहता है कि ऐसा कोई रोग नहीं है जो ठीक न हो सकता हो। गुरुदेव द्वारा शिष्यों को जो मंत्र दिया जाता है वह संजीवनी मंत्र है जिसका मतलब है कि यदि कोई बिलकुल मौत के किनारे पर पहुँच चुका है और पूर्ण विश्वास के साथ मंत्र जाप एवं ध्यान करता है तो वह रोगमुक्त हो जायेगा। साधक को अपनी दिनचर्या में कोई परिवर्तन किये बिना चौबीसों घन्टे (अधिकतर समय) मंत्र जाप करना चाहिए। साधक को दिन में दो बार कम से कम १० से १५ मिनट के लिये खाली पेट ध्यान भी करना चाहिए।
साधक जितना ज्यादा मंत्र जाप समर्पण के साथ करेगा उतनी ही तेजी के साथ वह रोग मुक्त होगा।
बीमार आदमी को दिन में कम से कम २-३ बार धयान करना चाहिए।
ध्यान के दौरान साधक को गुरुदेव से रोगमुक्ति हेतु प्रार्थना करनी चाहिए।
साधक को गंडा ताबीज या अन्य कोई ऐसी चीजें जो जादू टोने से सम्बन्ध रखती हों नहीं पहननी चाहिए।
जो व्यक्ति गुरुदेव के प्रति दृढ निष्ठा तथा पूर्ण समर्पण रखता है वह कुछ ही दिनों में पूर्ण स्वस्थ हो जाता है।
साधक को किसी अन्य गुरू की उपासना पद्धति से बच के रहना चाहिए तथा गुरुदेव के द्वारा दिये गये मंत्र के अलावा किसी अन्य मंत्र का जाप नहीं करना चाहिए।
नियमित ध्यान एवं मंत्रजाप, कुण्डलिनी शक्ति को शरीर में ऊपर की ओर उठाता है तथा शरीर बीमारियों से मुक्त होता जाता है।
अगर कोई साधक औषधिय ले रहा है तो कुछ दिनों के पश्चात उसे स्वतः ही उनकी आवश्यकता महसूस नहीं होगी और धीरे-धीरे वह छूट जायेंगी।
पूरी दुनिया में कही भी बिना गुरुदेव से मिले, केवल गुरूदेव के फोटो से भी ध्यान लगता है
मंत्र दीक्षा विडियो/आडियो सी सीडी से, टीवी से, मेल से भी कार्य करती है
गुरूदेव का मंत्र-जाप किसी दूसरे (जो स्वयम करने में अक्षम हो) के लिए भी किय जा सकता है
गुरुदेव साधक को कोई कोर्स या ट्रेनिंग सेशन अटेंड करने को नहीं कहते.
जी एस एस वाई को करने के लिए कोई प्राम्भिक जानकारी आवश्यक नहीं.
गुरुदेव कुछ भी छोड़ने या बदलने को नहीं कहते.
गुरुदेव का कहना कि तुम कुछ मत छोड़ो, जो वस्तु तुम्हारे लिए सही नहीं हे तुमको छोड़ जायेगी.
केवल गुरुदेव का फोटो भी कार्य करता है.
कोई लेन-देन की जरूरत नहीं, पूर्णत निःशुल्क.
गुरुदेव कोई डैरेक्ट या इंडाइरेक्ट दान नहीं मांगते. कोई रजिस्ट्रेशन नहीं
गुरुदेव किसी भी प्रकार का बंधन नहीं लगते.
गुरुदेव कभी नहीं कहते कि मेरे को गुरु मानने के बाद किसी दूसरे को गुरु मत बनाओ
कोई माला फूल अगरबत्ती आदि के बंधन नहीं.
योगिक क्रियायें या अनुभूतियां न होने पर भी इसे बन्द न करें। रोजाना सुबह-शाम ध्यान करने से कुछ ही दिन बाद अनुभूतियां होना प्रारम्भ हो जायेंगी।
ध्यान करते समय मंत्र का मानसिक जाप करें तथा जब ध्यान न कर रहे हों तब भी खाते-पीते, उठते-बैठते, नहाते धोते, पढते-लिखते, कार्यालय आते जाते, गाडी चलाते अर्थात हर समय ज्यादा से ज्यादा उस मंत्र का मानसिक जाप करें। दैनिक अभ्यास में १५-१५ मिनट का ध्यान सुबह-शाम करना चाहिये।
गुरू के प्रति पूर्ण निष्ठा व धैर्य आवश्यक
आरम्भ करने वाले इस बात को लेकर चिन्त्तित होते हैं कि किस प्रकार प्रयास कर जाप किया जाय लेकिन कुछ दिनों तक ही निष्ठापूर्वक लगातार प्रयास की आवश्यकता होती है। जब कुछ दिनों तक लगातार मंत्र का जाप किया जाता है तो यह स्वतः ही जपा जाने लगता है फिर भी यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी निष्ठा, ईमानदारी और लगन के साथ प्रयास किया गया है। साधक को यह सख्त हिदायत दी जाती है कि यदि उनकी प्रगति धीमी लगे तो भी वह इसे छोड़े नहीं, अन्त्ततः वह इसे प्राप्त कर लेंगे।
जो भी इसमें रूचि रखता है उसके लिये सिद्धयोग का अभ्यास करना बहुत सरल है। योग के बारे में पूर्व जानकारी या अनुभव आवश्यक नहीं है और न ही कोई खास उपकरणों, सहायता अथवा ड्रेस विशेष की आवश्यकता होती है। योग प्रशिक्षक की उपस्थिति भी आवश्यक नहीं होती। किसी रस्मो-रिवाज की भी जरूरत नहीं होती। सिद्धयोग के साधक को अपना धार्मिक विश्वास छोडने या जीवन पद्धति में बदलाव लाने या खानपान में परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं होती। अच्छा स्वास्थ्य तथा आध्यात्मिक प्रगति के लिये साधक को सिर्फ गुरू सियाग के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं भक्ति की जरूरत होती है।
सिद्धयोग में गुरू सियाग के प्रति पूर्ण विश्वास एवं समर्पण के साथ दीक्षा में दिये गये मंत्र का जाप एवं ध्यान शामिल है। गुरू सियाग एक साधक को जो उनका शिष्य बनना चाहता है “एक मंत्र-एक दिव्य शब्द” देते हैं जिसका चुपचाप मानसिक रूप से जाप करना होता है तथा वह बतलाते हैं कि प्रतिदिन ध्यान कैसे करना है रोजाना ध्यान, मानसिक रूप से मंत्रजाप के साथ होता है। कुछ दिनों तक लगातार मंत्र का जाप करते रहने से “अजपा जाप” बन जाता है। यह सीधे तौर पर इस बात पर निर्भर करता है कि जाप कितनी निष्कपटता, विश्वास तथा तीव्रता के साथ किया गया है।
कुछ साधकों में यह जाप एक सप्ताह में ही अजपा बन सकता है तथा अन्य में कुछ महीने या अधिक समय भी लग सकता है। शिष्य को मंत्र जाप के साथ-साथ सुबह शाम १५-१५ मिनट के लिये ध्यान भी करना होता है।
एक दीक्षित व्यक्ति जैसे-जैसे सिद्धयोग के मार्ग पर आगे बढता है वह शीघ्र ही महसूस करता है कि तनाव दूर हुआ है, ध्यान केंद्रित करने की शक्ति बढी है तथा विचार अधिक धनात्मक हुए हैं। ध्यान की अवस्था में बहुत से साधकों को विभिन्न यौगिक मुद्रायें तथा क्रियायें स्वतः होती हैं। साधक इन यौगिक क्रियाओं को न इच्छानुसार कर सकता है न नियंत्रित कर सकता है और न रोक ही सकता है। यह क्रियायें हर साधक के लिये उसके शरीर की आवश्यकतानुसार अलग-अलग होती हैं।
ऐसा इस कारण होता है कि यह दिव्य शक्ति जो गुरू सियाग की आध्यात्मिक शक्ति के नियंत्रण में कार्य रही होती है वह यह अच्छी तरह से जानती है कि साधक को शारीरिक एवं मानसिक रोगों से छुटकारा दिलाने एवं उसे आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढाने के लिये कौनसी विशेष मुद्रायें/क्रियायें आवश्यक हैं।
इस कारण सिद्धयोग में यौगिक मुद्रायें अन्य योग विद्यालय में इच्छानुसार वांछित प्रभाव लाने के लिये किसी क्रम विशेष में व्यवस्थित विधि द्वारा कराई जाने वाली यौगिक क्रियाओं के अनुसार नहीं होती हैं। सिद्धयोग में लोगों को समूह में ध्यान करते देखकर एक निरीक्षणकर्ता यह देखकर अचम्भित हो जाता है कि भाग लेने वाले लगभग प्रत्येक व्यक्ति की योगिक मुद्रायें भिन्न-भिन्न हैं। बहुत से साधक ध्यान के दौरान उमंग एवं खुशी अनुभव करते हैं जो उन्होंने पहले कभी भी महसूस नहीं की हुई होती है।
गुरु सियाग सिद्ध योग ध्यान विधि से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होने से साधक को विभिन्न प्रकार की योगिक क्रियाएँ होने से शरीर की सभी प्रकार की बीमारियां ठीक होना आरम्भ हो जाती हैं।
ध्यान के दौरान योगिक क्रियाएँ केवल उसी अंग की होती हैं जो बीमार होता है, जैसे किसी के हाथ या गर्दन में दर्द है तो ध्यान के समय हाथ या गर्दन की योगिक क्रिया होती है। कुछ दिनों बाद जब शरीर के उस हिस्से की बीमारी ठीक हो जाती है तो योगिक क्रियाएँ अपने आप रुक जाती हैं।
एड्स जैसी बीमारी की स्थति में, जिसमे सारा शरीर प्रभावित होता है, ध्यान के दौरान साधक आंतरिक क्रियाएँ जैसे गर्मी, कम्पन, तरंगे, बिजली जैसा प्रवाह आदि महसूस करता है।
गुरु सियाग सिद्ध योग के नियमित ध्यान से शरीर की बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता में बहुत वृद्धि हो जाती है।
जागृत कुण्डलिनी शक्ति साधक में विभिन्न प्रकार की बीमारियों के लिए एक रक्षक दीवार की तरह काम करती है जो उस बीमारी को दोबारा आने का मौका नहीं देती।
साधक को बीमारी ठीक होने के संकेत नियमित ध्यान एवं जाप से, २ से १५ दिनों में मिलने लगते हैं।
गुरु सियाग सिद्ध योग ध्यान विधि से किसी बीमारी, नशा या मानसिक समस्या से ठीक होना, पूर्ण रूप से साधक की ध्यान व जाप करने की नियमितता, समर्पण व लगन पर निर्भर करता है। साधक जितना लगन व समर्पण से ध्यान व जाप करेगा उतनी ही जल्दी उसकी बीमारी ठीक होगी।
गुरू सियाग ने अनेक केसैज में यह सिद्ध किया है कि जी.एस.एस.वाई. का नियमित अभ्यास लम्बे समय से चली आ रही बीमारियों जैसे गठिया व डायबिटीज (शक्कर की बीमारी) तथा अन्य घातक रोगों जैसे कैन्सर व एड्स/एच.आई.वी. में न सिर्फ आराम ही पहुँचा सकता है बल्कि उन्हें ठीक भी कर सकता है। अनगिनत मरीज, जिनका चिकित्सकों के पास कोई इलाज नहीं था, और मरने के लिये छोड दिये गये थे, उन्होंने सिद्धयोग को अन्तिम विकल्प के रूप में अपनाया और गुरुदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया तथा दीक्षा ली, वह न सिर्फ जीवित और पूर्ण स्वस्थ हैं बल्कि लगभग अपना सामान्य जीवन भी जी रहे हैं।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान जहाँ किसी बीमारी में लाभ पहुँचाने या उसे ठीक करने में असमर्थ रहता है वहाँ योग सफलतापूर्वक उसे ठीक करता है। अतः यह आश्चर्यजनक नहीं है कि अधिकांश मरीज हर प्रकार की चिकित्सा पद्धति अपनाने के बाद भी कोई लाभ न मिलने से एवं जिनके जीवित रहने की आशा समाप्त हो चुकी है, सामान्यतः वह गुरू सियाग के पास मदद के लिये आते हैं।
ठीक हुए मरीज
जी. एस. एस. वाई. से एड्स पूरी तरह ठीक हुआ :
जोधपुर (राजस्थान-भारत) निवासी भंवरलाल जाट एड्स की अन्तिम अवस्था तक पहुँचा हुआ एक ऐसा ही केस था। चिकित्सालय में जब उसका इलाज चल रहा था उसके नजदीकी रिश्तेदारों से डॉक्टरों ने यह कहकर कि भंवरलाल अब मृत्यु के अन्तिम छोर पर पहुँच चुका है, इसे घर ले जाओ, चिकित्सालय से डिस्चार्ज कर दिया था। एक अक्टूबर २००२ के दोपहर बाद स्ट्रेचर पर लादकर ऐसी हालत में भंवरलाल को गुरू सियाग के पास लाया गया ।
वह न तो बोल सकता था और न अपने हाथ पैर ही हिला सकता था। गुरू सियाग ने भंवरलाल को मंत्र दिया, लोग पूरी तरह से आश्चर्यचकित रह गये जब उन्होंने देखा कि एक सप्ताह के अन्दर ही भंवरलाल के स्वास्थ्य में सुधार के स्पष्ट लक्षण दिखाई पडने लगे। उसका बाद में वजन बढ गया और पूर्ववत पूर्ण स्वस्थ हो गया।
तब से वह अपना सामान्य जीवन व्यतीत कर रहा है। एड्स से भंवरलाल का आश्चर्यजनक सुधार व उसके प्रत्यक्ष रूप से स्वस्थ होने के लक्षणों के बावजूद आज स्थानीय चिकित्सा बिरादरी उसके केस को आगे लाने से मना करती है क्योंकि एक बीमारी की आध्यात्मिक चिकित्सा का विचार विकसित पश्चिम के चिकित्सकों के गले अभी तक नहीं उतर सका है।
जी. एस. एस. वाई. से कैंसर पूरी तरह ठीक हुआ :
बीकानेर (राजस्थान) निवासी, श्रीमती सुशीला का ल्यूकीमिया (ब्लड कैंसर) का केस भी इसी प्रकार का था। अप्रैल २००० में उनके सफेद रक्तकणों का स्तर खतरनाक स्थिति तक पहुँच गया। उनके परिचितों ने उन्हें गुरू सियाग के बारे में बतलाया, अतः उन्होंने अन्तिम विकल्प के रूप में इसे चुना। मई २००० में श्रीमती सुशीला ने गुरू सियाग से दीक्षा ली। गुरुदेव सियाग से दीक्षा लेने के ९ दिन बाद ही श्रीमती सुशीला के आश्चर्यजनक सुधार हुआ। सिद्ध योग का अभ्यास करने के २ माह के अन्दर ही श्रीमती सुशीला के सफेद रक्तकणों की संख्या सामान्य हो गई।
सभी प्रकार के नशों जैसे शराब, अफीम, स्मैक, हेरोइन, भाँग, बीडी, सिगरेट, गुटखा, जर्दा आदि से बिना परेशानी के छुटकारा।
किसी भी खाद्य-पदार्थ पर से मजबूरी जैसी निर्भरता अपने आप हट जायेगी और कोई साइड इफेक्ट भी नहीं होगा. जैसा कोई भी मोटापा कोई नहीं चाहता, पर खाने की लत (वास्तव में बॉडी की डिमांड) नहीं छूटती, तो ये धयान व जप अपने आप वज़न घटने में मदद करने लगेगा. खाना-पीना अपने आप कंट्रोल होने लगेगा.
ऐसी कोई भी लत जिसे आप छोडना चाहते हैं, इस ध्यान व जप से छूट जायेगी.
मानसिक रोग जैसे भय, चिन्ता, अनिद्रा, आक्रोश, तनाव, फोबिया आदि से मुक्ति।
मानसिक चिंता या तनाव या आक्रोश का कोई भी कारण हो सकता है जैसे- नौकरी, शादी, पारिवारिक समस्या, आर्थिक-समस्या, ऑफिस-प्रॉब्लम आदि कुछ भी हो सकता है. तो ये नियमित ध्यान व् जप कुछ ही दिनों में आपकी सहायता आरम्भ कर देगा.
ध्यान आपकी समस्याओ के हल दिखने लगेगा, जिससे तनाव व् आक्रोश घटना शुरू हो जायेगा. समस्याओ का हल धयान में अचानक, या किसी व्यक्ति द्वारा, किसी के फोन द्वारा, किसी बुक द्वारा, किसी भी माध्यम से होने लगेगा.
मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक असंतुलन को दूर कर शरीर को पूर्ण स्वस्थ बनाता है।
आध्यात्मिकता के पूर्ण ज्ञान के साथ भूत तथा भविष्य की घटनाओं को ध्यान के समय प्रत्यक्ष देख पाना सम्भव।
ध्यान के दौरान भविष्य की घटनाओं का आभास होने से मानसिक तनावों से मुक्ति।
एकाग्रता एवं याद्दाश्त में अभूतपूर्व वृद्धि।
साधक को उसके कर्मों के उन बन्धनों से मुक्त करता है जो निरन्तर चलने वाले जन्म-मृत्यु के चक्र में उसे बांध कर रखते हैं।
तामसिक वृत्ति के शान्त होने से मानव जीवन का दिव्य रूपान्तरण।
साधक को उसकी सत्यता का भान एवं आत्मसाक्षात्कार कराता है।
गृहस्थ जीवन में रहते हुए आध्यात्मिक विकास।
साधना करने के लिए घर या नौकरी छोड़ने की जरूरत नहीं. कोई भी खान-पान या रहन-सहन बदलने की जरूरत नहीं।
Shaktipat Diksha in Hindi Video